प्रतिकूल
मैं जिसे आग कहूँ ,उसमे उसे शहद का रंग नज़र आता है अलग अलग सोच है पर सार वही है ! उसे इश्क है मुझे प्रेम है.. नाम अलग है.. पर! जज्बा वही है..! मेरे डर मे मोहब्बत है और उसके इंतज़ार मे! मुझे इल्म है ज़ख्मों की गहराई का उसे चाह है इश्क की आग की मै सुनती हूँ आवाज़ तूफानों की उसे लगता है बहार है! वो जीना चाहता है इस दर्द को पर मै खौफज़दा हूँ दीदार-ऐ-यार के ख़याल से भी.. डरती हूँ कहीं खो न जाए हर ख्वाब बस एक ही पल मे..! चाहे जितना खौफ हो.. चाहे जितना दर्द.. हमें पता है हमारा नसीब ... एक तो हमें होना है की कहीं.. जिस्म भी जिंदा रह सका है रूह के बिना.. की सुना कभी कोई फूल हो खुशबू के बिना. या कोई आँख हो अश्क के बिना... सो है वो और मैं.. एक दुसरे के वास्ते ...... अंदाज़ अलग हो या सोच.. मज़हब अलग हो या... परंपरा.. रिश्ता तो दिल का दिल से ही है और रहेगा... विचार प्रतिकूल हुए तो क्या.. भावना तो सबमें एक ही निहित है!!! 12.34.p.m. 04-05-09